Ghalib Shayari

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Mirza Ghalib Shayari in Hindi

कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में,
पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते..!!

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब,
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे..!!

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई..!!

दर्द मिन्नत कश ए दवा न हुआ,
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ..!!

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक..!!

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा मस्ती एक दिन..!!

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले..!!

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है..!!

काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब,
शर्म तुम को मगर नहीं आती..!!

दि ए नादाँ तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है..!!

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब..!!
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे..!!

इशरत ए क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना..!!

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई..!!

दर्द मिन्नत कश ए दवा न हुआ,
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ..!!

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक..!!

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा मस्ती एक दिन..!!

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले..!!

कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में,
पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते..!!

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले..!!

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता..!!

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं..!!

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल ए यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता..!!

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है..!!

बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता,
वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है..!!

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें,
हम औजे तअले लाल ओ गुहर को देखते हैं..!!

कहाँ मय ख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले..!!

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन,
बहुत बे आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले..!!

वो आए घर में हमारे खुदा की क़ुदरत हैं,
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं..!!

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज ए गुफ़्तगू क्या है..!!

हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता..!!

तुम न आए तो क्या सहर न हुई,
हाँ मगर चैन से बसर न हुई..!!

मेरा नाला सुना ज़माने ने,
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई..!!

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